sunil kumar sagar

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Sunday, December 20, 2009

शिक्षा के मन्दिर में लगती हैं, अब लूट की दूकान

कभी स्कूल सिक्षा का मन्दिर कहा जाता था ,गुरुजनों को भगवन का दर्जा दिया जाता था । बिना किसी लोभ लालच के अध्यन कार्य किया करते थे । लेकिन आज का शिक्षक ८० प्रतिशत चौराहे के लूटेरे से भी बड़ा लूटेरा बन गया हैं । तीन से पाँच वर्ष के बच्चों से एक हजार मेंटिनेंस लिया जाता हैं । वो नादान बच्चें न कुर्सी तोड़ सकते हैं न दरवाजा , वो तो सिर्फ अपनी नादानगी दिखा कर दिवार स्टूल व टेबल पर दाग लगा सकते हैं जिसको आसानी से साफ किया जा सकता हैं ,पहले गांव -गांव जा कर मदारी अपना रूप बदला करते थे,व खेल दिखाया करते थे । लेकिन अब पब्लिक स्कूलों ने बच्चों को भिन्न -भिन्न तरह की ड्रेस पहनाकर मदारी बना दिया हैं । प्रत्येक वर्ष बच्चों की ड्रेस बदली जाती हैं व भिन्न -भिन्न डिजाईन निकलवाना ,स्कूल का लोगो बदलवाना । ऐसा कने पर अभिभावक मजबूर होकर इनकी लूट की दूकान से खरीदता हैं । किताबें व स्टेशनरी लूट के बजट की रीड़ हैं, जिससे ये चालीस से पचास प्रतिशत कमीशन खाते हैं ।



कितबो का प्रकाशन ऐसा लिया जाता , जिसे आस- पास संपर्क भी न कर सके ,जिसका नाम भी न सुना हो ,कॉपी का साईज़ ऐसा लिया जाता है जो मिल भी न सके । १४ नवम्बर को बालदिवस मेला न लग कर पब्लिक स्कूलों लूट दिवस मेला लगा हैं । इस मेले में प्रवेश के लिए भी शुल्क लिया जाता हैं तभी इस मेले में प्रवेश कर सकते हैं ,मात्र भाषा बोलने पर भी जेब पर डाका डाला जाता हैं । तथा वार्षिक महोत्सव स्कूल का मनाया जाता हैं, तो अभिभावकों की जेब पर डाका डाला जाता है । सिक्षा के नाम पर प्रतियेक व्यक्ति कही न कही लूट रहा हैं । सरकार को ऐसे मानक लाने चाहिए , जिसे इन का शुल्क एक दायरे में तथा किताबे एन ० सी ० आर 0 टी ० कि होनी चाहिए स्टेशनरी साइज़ सामान्य होना चाहिए ऐसा करने से अभिभावकों कि जेब पर डाका नही ड्लेगा।